इंदौर में विजयनगर का पॉर्ष इलाका, बड़ा नीला पुता घर और वहा से आती रोने की आवाजें। यूं तो अकेले रहने वाली उमला जी को मिलने आन का वक्त किसी औलाद के पास नहीं था,आज उनके इस बेजान शरीर के इर्द-गिर्द लोग का ताँता लगा था। आस पास जो लोग उन्हें जानते थे,अम्मा कहकर बुलाया करत थे। बच्चे विदेश से माॅं के अंतिम संस्कार की औपचारिकता पूरी करन आ चुक थे।
एक तरफ जहाॅं अम्मा अपने बच्चों से मिलने को तरसती रही वहीं दूसरी ओर बीनू की मौजूदगी ने उन्हें कभी अकेलेपन का एहसास ना होन दिया। बीनू पास की ही एक बस्ती में रहता था। जाने अम्मा और बीनू की छोट सी मुलाकात कैसे एक अटूट रिश्ते में बंध गयी। अब तो वह रोज अम्मा के घर चला आता। दोनों मिलकर खूब खेल खेलते, कभी अम्मा बीनू को पकड़ने दौड़ती तो कभी उसके छुपने तक दीवार की तरफ मुड़कर गिनती रहती। उससे हारकर भी वह अपने को जीता महसूस करती।
बीनू के नन्हें पैरों की आहट और उसकी खिलखिलाती हंसी तो जैस अम्मा की संजीवनी हो गई थी। बीनू को आने में कभी दर हो जाती तो घर क बाहर दूर तक रोड़ प निगाहें जमाय रहती। कभी उसक लिए आंगन स बेर तोड़ के रखती तो गर्मीयों कच्चे आम जो बीनू को सबसे प्रिय थे। उसके पसंद का खाना अपने हाथों से खिलाते अम्मा को एक अलग ही सुकन महसूस होता था। बीनू भी उसी स्नेह से आकर अम्मा की गोद में बैठ कर ही कुछ खाता था। आर्थिक रूप से कमज़ोर होन के कारण माॅं बाप ने बीनू का स्कूल जाना बंद करा दिया, अम्मा को जब पता चला तो उसकी पढ़ाई की ज़िम्मेदारी भी उन्होंने ले ली।
दिवाली पर जलाए दियों की रोशनी भी उनके लिए तब तक फिकी रहती जब तक बीनू नहीं आ जाता। जाने वह खूबसूरत वक्त कैसे यूं बीत गया। दोनो की उस ख्वाबों की दुनिया में आज अम्मा के निधन ने बीनू को फिर उसी भीड़ में तन्हा ला खड़ा कर दया था।
पीली साड़ी में लिपटी अम्मा आज भी पहले की तरह सुंदर दिखायी दे रही थी। कुछ ही देर में उन्हें ले जाया जाने लगा।
बीनू एकटक उन्हें दूर तक जाता देख रहा था, शायद अपने और अम्मा के बीच बंधी उस स्नेह डोर के टूटने का एहसास उस हो रहा था।
उसकी आंखों से गिरते आंसू और खामोशी अपने अपरिमित दर्द को यूं बयां कर रहे थे मानो बस यही कह रहें हो ‘लौट आओ अम्मा’